बेनीपट्टी (मधुबनी)। मिथिलाचंल का प्रसिद्ध सामा-चकेवा की परंपरा अब विलुप्त की कगार पर पहुंच चुकी है। पहले मिथिला क्षेत्र के हर घरों से सामा-चकेवा खेलने की परंपरा निभायी जाती थी, वहीं अब कुछ ही घरों तक सिमट कर रही गयी है। सामा-चकेवा खेलने के दौरान सामाजिक प्यार देखा जाता था। जहां रात होते ही सभी घरों की लड़कियां एवं अन्य औरते एक साथ होकर झूंड में सामा-चकेवा खेलती थी। यह पर्व खास तौर पर भाई-बहन के अटूट प्यार के निशानी के तौर पर खेला जाता था। यह त्यौहार नवंबर माह मे मनाया जाता है। कहा जाता है कि सामा कृष्ण की पुत्री थी। जिस पर गलत आरोप लग गये थे, तो कृष्ण ने सामा को पक्षी के रुप में रहने का श्राप दिया। भाई चकेवा को जब उक्त बातों की जानकारी हुई तो तपस्या कर अपने बहन सामा को पुनः मनुष्य रुप में ला दिया। कहा जाता है कि तब से सामा-चकेवा का त्यौहार हर वर्ष मनाया जाने लगा। बेनीपट्टी के रविन्द्र पाठक ने बताया कि सामा-चकेवा अब मिथिला से सिमट रहा है, जो काफी दुखदायक है। मिथिला की परंपरा नष्ट होने से हमारी संस्कृति सिमटती जा रही है। जिसका प्रभाव समाज में अब स्पष्ट नजर आ रहा है। श्री पाठक ने कहा कि पश्चिमी सभ्यता के कारण मिथिला का कई लोकपर्व सिमट रहा है। जिसके कारण हमारी सभ्यता खत्म हो रहा है। हमलोग पश्चिमी सभ्यता के कारण प्राचीन काल से आ रही सभ्यता को भुल रहे है। वहीं वरिष्ठ पत्रकार विद्याधर झा ने मिथिला के लोगों से इस महान पर्व को बचाने के लिए आगे आने का आह्वान किया है। उन्होंने बताया कि इस पर्व को कायम रखने से सामाजिकता सुरक्षित रहेगी।


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