संपादकीय। बिकाश झा : आरक्षण भारत में एक राजनीतिक आवश्यकता है क्योंकि मतदान की विशाल जनसंख्या का प्रभावशाली वर्ग आरक्षण को स्वयं के लिए लाभप्रद के रूप में देखता है। सभी सरकारें आरक्षण को बनाए रखने और या बढाने का समर्थन करती हैं। आरक्षण कानूनी और बाध्यकारी हैं। गुर्जर आंदोलनों (राजस्थान, 2007-2008) ने दिखाया कि भारत में शांति स्थापना के लिए आरक्षण का बढ़ता जाना आवश्यक है। जाति आधारित आरक्षण संविधान द्वारा परिकल्पित सामाजिक विचार के एक कारक के रूप में समाज में जाति की भावना को कमजोर करने के बजाय उसे बनाये रखता है। आरक्षण संकीर्ण राजनीतिक उद्देश्य की प्राप्ति का एक साधन है। कोटा आवंटन भेदभाव का एक रूप है, जो कि समानता के अधिकार के विपरीत है। आरक्षण ने चुनावों को जातियों को एक-दूसरे के खिलाफ बदला लेने के गर्त में डाल दिया है और इसने भारतीय समाज को विखंडित कर रखा है। चुनाव जीतने में अपने लिए लाभप्रद देखते हुए समूहों को आरक्षण देना और दंगे की धमकी देना भ्रष्टाचार है और यह राजनीतिक संकल्प की कमी है।

● सवाल मेरा : आखिर कब तक ??
क्रमश : जब बिहार विधानसभा का चुनाव कुछ ही हफ्तों में शुरू होनेवाला है, तब राजनीति से जुड़े किसी परिपक्व व्यक्ति से क्या यह कहने की उम्मीद की जा सकती है कि देश की आरक्षण व्यवस्था पर बहस करने की जरूरत है? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत की आरक्षण पर टिप्पणी को अलबत्ता इससे नहीं जोड़ना चाहिए, क्योंकि संघ ने बार-बार दोहराया है कि वह राजनीतिक नहीं, एक सांस्कृतिक संगठन है। हालांकि कम ही लोग मानते हैं कि संघ एक सांस्कृतिक संगठन है। ऐसे कितने सांस्कृतिक संगठन हैं, जो सरकार के साथ तीन दिवसीय विचार मंथन सत्र आयोजित करें, जिसमें लगभग सभी मंत्रियों और खुद प्रधानमंत्री की मौजूदगी हो, और ये तमाम लोग बताएं कि उन्होंने क्या किया है और आगे क्या करने वाले हैं?यह विवाद इसलिए खड़ा हुआ, क्योंकि मोहन भागवत ने संघ की दो पत्रिकाओं पांचजन्य और ऑर्गेनाइजर को दिए इंटरव्यू में आरक्षण के मुद्दे पर स्पष्ट बयान दिए। हमारे देश में कई ऐसे मामले हैं, जिन पर कोई व्यक्ति तीखा बयान देने से बचता है, जैसे विभिन्न सांस्कृतिक प्रथाओं पर कोई सवाल नहीं उठाता। उसी तरह मंडल के दौर के बाद आरक्षण की नीति पर कोई सवाल नहीं खड़े करता। लेकिन जब इंटरव्यू प्रकाशित हुआ और टीवी चैनलों ने इसे प्रमुखता से चलाना शुरू किया, तो भाजपा खासकर लालू यादव की प्रतिक्रिया के बाद चिंतित हो उठी। इंटरव्यू प्रकाशित होने के दो दिन बाद संघ का आधिकारिक स्पष्टीकरण आया, हालांकि उसमें भागवत की टिप्पणी से इन्कार नहीं किया गया। इसने भाजपा को सिर्फ यही कहने का मौका दिया कि आरक्षण के मुद्दे पर पार्टी के रुख में कोई बदलाव नहीं आया है। जबकि आरक्षण पर अपनी मंशा तो वह पहले ही जाहिर कर चुकी थी। भले ही विभिन्न वजहों से हो, लेकिन उसने गुजरात और राजस्थान में ऊंची जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर तबके को या तो आरक्षण दिया या अन्य तरह से सहायता दी। अपने शुरुआती दिनों से ही संघ जाति प्रथा के खिलाफ है। यहां तक कि 1920 के दशक में खुली नजरबंदी में रह रहे वीर सावरकर अस्पृश्य लोगों को एक प्रमुख हिंदू मंदिर में प्रवेश दिलाने के अभियान में अग्रणी थे। सावरकर ने हालांकि कभी संघ की सदस्यता नहीं ली और 1938 में रिहा होने के बाद वह हिंदू महासभा के नेता बने, लेकिन उनकी वैश्विक दृष्टि का संघ पर काफी प्रभाव है। केशव बलिराम हेडगेवार ने वीर सावरकर की कृति हिंदुत्व पढ़ने और उससे प्रेरित होने के बाद ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। संघ और उसके जैसे दूसरे संगठनों ने भले ही वर्ण व्यवस्था के बुनियादी विचारों का कभी विरोध नहीं किया, लेकिन हिंदू समाज को ज्यादा एकजुट बनाने के लिए वे शुरू से ही भेदभाव खत्म करना चाहते थे। वीर सावरकर के विचार सर्वविदित हैं। उन्होंने कहा था कि जाति के आधार पर भेदभाव हिंदू समाज की एकजुटता में बाधा हैं। चूंकि हिंदू समाज को मजबूत बनाना जरूरी है, इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि सभी समूहों को आध्यात्मिक और भौतिक उन्नति का समान अवसर मिले। यही वह मुख्य वजह थी, जिसके कारण आजादी के बाद संघ परिवार ने कई मौकों पर जाति की पहचान से अलग हटकर हिंदुओं को एकजुट करने की कोशिश की। ऐसी एकता विभिन्न आंदोलनों की सफलता के लिए आवश्यक थी, और इसमें राम जन्मभूमि आंदोलन भी था। लालकृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा इसलिए शुरू की गई थी, क्योंकि मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के विश्वनाथ प्रताप सिंह के फैसले से हिंदू समाज में जाति के आधार पर आंतरिक विवाद पैदा हो गया था।आरक्षण नीति को लेकर संघ परिवार को शुरुआत से ही आपत्ति रही है, लेकिन भाजपा के लिए आधिकारिक रूप से ऐसा कह पाना उतना ही मुश्किल है। मौजूदा संकट यह है कि गुजरात में पटेल समुदाय के आंदोलन से राज्य में जातिगत संघर्ष छिड़ने का खतरा है। एक बार जब गुजरात में पटेलों का अन्य हिंदू जातियों के साथ संघर्ष छिड़ जाएगा, तो यह शीघ्र ही अन्य राज्यों में भी फैल जाएगा। इसी कारण कुछ लोग मानते हैं कि मौजूदा कोटा आधारित आरक्षण व्यवस्था की कई गंभीर सीमाएं हैं। आरक्षण के कोटे में कुछ और जातियों को शामिल करना इसका समाधान नहीं है; जैसा कि राजस्थान में एक प्रस्ताव पारित कर गुर्जर समेत विशेष जातियों को चार फीसदी अतिरिक्त आरक्षण दिया गया है, बल्कि असली समस्या कोटे से विभिन्न जातियों के ऐसे तबके को बाहर निकालने की है, जो शैक्षणिक एवं आर्थिक दृष्टि से उन्नत हैं और जिन्हें अब आरक्षण की जरूरत नहीं है। संघ परिवार लंबे समय से मानता रहा है कि आरक्षण जाति के बजाय आर्थिक आधार पर होना चाहिए, लेकिन चूंकि यह विवादास्पद मुद्दा रहा है, इसलिए इस पर बहस हमेशा गर्म हो जाती है।सवाल यह है कि बिहार चुनाव के समय मोहन भागवत ने ऐसा विवादित बयान क्यों दिया, जबकि उनसे जो सवाल पूछा गया था, उसके जवाब में आरक्षण नीति का संदर्भ देने की वास्तव में कोई जरूरत नहीं थी। लिहाजा इसमें तो कोई शक ही नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वाभाविक रूप से एक राजनीतिक संगठन है, पर तथ्य यह है कि इसका लक्ष्य कई बार भाजपा से अलग होता है। मोहन भागवत का बयान बेशक बिहार में भाजपा के लिए झटका है, क्योंकि इसने महागठबंधन को पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में गोलबंद करने का एक और अवसर दिया है। लेकिन गुजरात के, जो लंबे समय से हिंदुत्व की प्रयोगशाला रहा है, घटनाक्रम के कारण संघ के नेता मानते हैं कि आरक्षण के मुद्दे पर बहस चलाने का यही उपयुक्त अवसर है। संघ की सोच यह भी है कि रणनीतिक बदलाव की बात करते समय एक या दो चुनाव मायने नहीं रखता। 

भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों अभी जैसे-तैसे आरक्षण के मामले को ठंडे बस्ते में डालना चाहते हैं। लेकिन बिहार चुनाव के बाद आरक्षण का मुद्दा जोर-शोर से उठेगा।

संपादकीय संकलन : बिदेश्वर नाथ झा "बिकाश"


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