फाइल फोटो साभार : अन्य 

सौराठ (मधुबनी) बिकाश झा : मधुबनी ज़िला मुख्यालय से महज़ छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है सौराठ गांव। यह गांव वैवाहिक सम्मेलन के कारण पूरे विश्व में प्रसिद्ध है, यह सम्मेलन सौराठ सभा के नाम से जाना जाता है। सौराठ सभा संभवत: विश्व में अपने ढंग का अनूठा वैवाहिक सम्मेलन है, जहां प्रति वर्ष मैथिल ब्राह्मण समुदाय के लड़के-लड़कियों की शादियां तय होती हैं। इस वर्ष भी मैथिल ब्राम्हणों का प्रसिद्द वैवाहिक स्थल सौराठ सभा का वास 4 जून से पौराणिक वयवस्था के अनुरूप प्रारंभ होगा। यह सभा 12 जून तक चलेगी पंजीकर विश्वमोहन मिश्र के मुताबिक 9 दिवसीय सभावास में 5 वैवाहिक दिन है। इनमे 4, 11, और 12 जून को शुभ लग्न है। लेकिन अब यहां से शादी तय करना गुजरे जमाने की बात हो गई है। लोग यहां आना तक मुनासिब नहीं समझते, जिसके चलते इस ऐतिहासिक परंपरा का अस्तित्व खत्म होता जा रहा है। अगर समय रहते लोगों ने इस पर सोचना शुरू नहीं किया तो यह ऐतिहासिक परंपरा इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह जाएगी। कई सदियों से ज्येष्ठ-आषाढ़ के महीने में यहां एक विशेष प्रकार के मेले का आयोजन किया जाता रहा है। इसे मेला नहीं, बल्कि सौराठ सभा या सभागाछी के नाम से जाना जाता है। सभा का आयोजन 22 बीघा ज़मीन पर खुले आसमान के नीचे होता है। यह ज़मीन दरभंगा महाराज ने दान में दी थी। लोग यहां विवाह योग्य लड़के-लड़कियों की तलाश में इकट्ठा होते हैं और यहीं से शादी तय होती है। वर अपने संबंधी या अभिभावक के साथ यहां आते हैं। वधू पक्ष के लोग उनसे पूछताछ करते हैं और उसके बाद शादी तय होती है। इस तरह के आयोजन का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि कन्यागत (वधू पक्ष) को यहां-वहां भटकने की ज़रूरत नहीं पड़ती। उन्हें एक ही स्थान पर बहुत सारे लड़के मिल जाते हैं और वे किसी सुयोग्य वर से अपनी बेटी की शादी करा देते हैं। सौराठ में शादियां कराने वाले पंजीकार विश्वमोहन मिश्र बताते हैं कि 700 साल पहले क़रीब1310 ईस्वी में इस प्रथा की शुरुआत हुई थी लिखित रूप में पंजी प्रथा की शुरुआत मिथिला नरेश हरिसिंह देव ने की थी। हालांकि इससे पूर्व उनके पूर्वज नान्यदेव इसकी नींव डाल चुके थे, मगर उस वक्त पंजी लिपिबद्ध नहीं होती थी। पंजी प्रथा का मुख्य उद्देश्य विवाह संबंध अच्छे कुल में होना है। इस प्रथा के अनुसार, कम से कम मातृकुल के पांच एवं पितृकुल के सात पुरखों के मध्य रक्त संबंध होने पर उस पीढ़ी के मध्य वैवाहिक संबंध वर्जित है। वैज्ञानिक कारण भी यही है, क्योंकि एक ही ब्लडग्रुप में शादी करने की सलाह डॉक्टर भी नहीं देते। शायद यही वजह है कि ब्राह्मण एक ही गोत्र एवं मूल में शादी नहीं करते। उनका मानना है कि अलग गोत्र में विवाह करने से संतान उत्तम होती है। शादी कराने में पंजीकारों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। पंजीकार ही शादियों की फिक्सिंग कराते हैं। मेले में सिद्धांत लिखवाने का भी काम होता है। मतलब यह कि वर और वधू पक्ष का वंशगत लेखाजोखा पंजीकार ही रखते हैं। यहीं से उन्हें उनके पुरखों की सारी जानकारी मिल जाती है। पुरखों का यह सिद्धांत क़ानूनी रूप से किसी भी शादी को स्वीकृति प्रदान करता है और अदालत में भी इसे मान्यता प्राप्त है। क़रीब दो दशक पहले यहां शादी करने और कराने वालों की अच्छी-खासी भीड़ होती थी, लेकिन विडंबना यह है कि अब धीरे-धीरे यहां आने वाले लोगों की संख्या साल दर साल घटती जा रही है। सवाल यह उठता है कि इस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार कौन है? हालांकि किसी एक को ज़िम्मेदार ठहराना सरासर ग़लत होगा। इसके लिए नेता, प्रशासन और वहां के लोग समान रूप से ज़िम्मेदार हैं। सभागाछी की इस स्थिति के लिए युवा पीढ़ी भी कम ज़िम्मेदार नहीं है, जो इस तरह के आयोजन में जाने से कतराती है। वह सोचती है कि वहां जाने से उसकी इज़्ज़त कम हो जाएगी। अब वहां जाना वे अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। विश्वमोहन मिश्र ने बताया कि 1971 में इस आयोजन में क़रीब डेढ़ लाख लोग आए थे, लेकिन धीरे-धीरे यहां आने वालों की संख्या कम होती गई। 1991 में लगभग पचास हज़ार लोग आए थे और इस वर्ष महज़ दस हज़ार लोग ही इस मौके पर पहुंचे। उक्त आंकड़े मेले की स्थिति बताने के लिए काफी हैं। मेला आयोजक चुनचुन मिश्र का कहना है कि इस स्थिति के लिए सरकार ज़िम्मेदार है, सभा को अब पहले जैसी सुविधाएं नहीं मिल रही हैं, जैसे यातायात, पानी और बिजली आदि की व्यवस्था नहीं की जाती। इसके अलावा भी कई कारण हैं, जिनसे सभागाछी का अस्तित्व खत्म होने की कगार पर हैं। इस इलाक़े में जितने भी सुखी संपन्न परिवार हैं, वे यहां नहीं आते। इसलिए एक हद तक यहां के लोग भी ज़िम्मेदार हैं। वे अपनी संस्कृति को नहीं बचाना चाहते। दहेज की समस्या ने भी इसे प्रभावित किया है। पहले यहां स्थिति यह थी कि कोई भी वर दहेज नहीं मांगता था, लेकिन अब यहां दहेज मुंह खोलकर मांगा जाता है। मेले में वर की तलाश में पहुंचे राम चौधरी ने कहा, मैं अपनी बेटी की शादी के लिए लड़का खोज रहा था, लेकिन सभी ने काफी अधिक दहेज मांगा। यहां यह सोचकर आया कि अच्छा लड़का मिल जाएगा, लेकिन एक भी ढंग का लड़का नहीं मिला। जो अच्छे लड़के आए थे, वे खुलकर दहेज मांग रहे थे। पहले सौराठ में विवाह होना सम्मान की बात मानी जाती थी, लेकिन अब यह कहा जाता है कि जिनका विवाह कहीं नहीं होता है, वही वर शादी करने के लिए यहां आते हैं।


उन्होंने कहा की सुचना तंत्र विकसित होने के बावजूद आज भी पंजी प्रथा के प्रति लोगो में उत्साह है। हालांकि पिछले कई वर्षो में सभा में लोगो की सहभागिता में कमी दिख रही है। पंजीकर शेखर चन्द्र मिश्र से विशेष बात में उन्होंने कहा की यह ऐतिहासिक स्थल पर्यटन विभाग व प्रशासनिक स्तर पर उपेक्षित है। कभी यहाँ भावी दुल्हों से यह ऐतिहासिक स्थल सौराठ सभा गुलज़ार रहता था।



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