पटना ( बिहार) बिकाश झा : लालू प्रसाद यादव अगर नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार विधानसभा का चुनाव लडऩे के लिए तैयार हो गए हैं तो समझ लिया जाना चाहिए कि दांव पर किस-किस का भविष्य लगा है और परिणामों के बाद देश की राजनीति की शक्ल क्या बनाने वाली है। लालू एक समझदार राजनीतिज्ञ हैं और उन्हें पता है कि ‘जनता परिवार’ अगर जीतता है तो भी फायदे में उनका राष्ट्रीय जनता दल रहेगा और गठबंधन की अगर हार होती है, तब भी शहादत नीतीश कुमार को ही देनी पड़ेगी। निश्चित ही बिहार के चुनावों में अब मुकाबला भाजपा और लालू-नीतीश के गठबंधन के बीच नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और संयुक्त विपक्ष के बीच होना है। बिहार में भाजपा के पास हाल-फिलहाल मुख्यमंत्री के पद की उम्मीदवारी के लिए कोई सर्व-सम्मत नेता नहीं है। अत: बहुत मुमकिन है भाजपा को नरेंद्र मोदी की लोकप्रिय छवि को ही आधार बनाकर विधानसभा का चुनाव लडऩे के लिए मजबूर होना पड़े।
इस लिहाज से बिहार का चुनाव एक साल पहले ही हुए लोकसभा के चुनावों और उसके बाद केंद्र सरकार के कामकाज पर जनता के ‘ओपीनियन पोल’ की तरह माना जाएगा। बिहार चुनाव के परिणामों की गूँज दुनिया भर में सुनाई देने वाली है, विशेषकर दिल्ली में हुए विधानसभा चुनावों में हुयी भाजपा की सफाई के परिप्रेक्ष्य में। वर्ष 2010 के चुनाव नीतीश के जदयू और भाजपा ने आपस में मिलकर लड़े थे और गठबंधन सरकार को शानदार बहुमत मिला था। बाद में भाजपा ने सरकार से नाता तोड़ लिया था। दिल्ली चुनाव में अरविन्द केजरीवाल के दूध से जली भाजपा अब बिहार में नीतीश-लालू की छांछ को भी फूंक-फूंक कर पीएगी और किरण बेदी जैसे किसी भी प्रयोग को दोहराने की हिम्मत नहीं करेगी। जो लोग बिहार की राजनीति को समझते हैं उन्हें पता है कि लालू और नीतीश के बीच अहंकार की लड़ाई स्थाई है और जो समझौता मजबूरी का ‘जहर पीकर’ हुआ है वह जरूरतों के पूरा होने तक ही काम करेगा। दोनों नेताओं और कांग्रेस के लिए अपने अस्तित्व का सवाल है कि मोदी और अमित शाह के चुनावी अश्वमेध को सफल नहीं होने दिया जाए।  

आंकड़ों के गणित के हिसाब से चलें तो पिछले चुनावों में नीतीश, लालू और कांग्रेस को प्राप्त कुल मतों का प्रतिशत भाजपा के मुकाबले कहीं अधिक था। जीतन राम मांझी की भूमिका को लेकर भाजपा ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं। बहुत संभव है इसकी वजह मांझी को प्राप्त हो रहे अत्यधिक महत्व को लेकर बिहार भाजपा में बढ़ रहा असंतोष हो। सुशील मोदी की भाजपा में एक सर्वमान्य नेता के रूप में लोकप्रियता रही है पर मुख्यमंत्री पद के लिए उनकी उम्मीदवारी को लेकर पार्टी आलाकमान अभी खामोश है। भाजपा को अपने अकेले दम पर बिहार में हुकूमत करने का मौका नहीं मिल पाया है। अत: निश्चित ही मोदी-शाह की संयुक्त कमान बिहार में अपनी समूची ताकत को झोंकने वाली है। राम विलास पासवान का भाजपा बिहार में कितना उपयोग करना चाहेगी, यह भी अभी साफ नहीं है। भाजपा के सारे चुनावी समीकरण हाल-फिलहाल तक इन अटकलों पर टिके हुए थे कि लालू यादव और नीतीश के बीच कभी कोई समझौता नहीं हो पाएगा। पर दोनों नेताओं ने असंभव को संभव कर दिखाया। उनके इस गठबंधन ने कमजोर होती हुई कांग्रेस में भी नई जान डाल दी। कांग्रेस के पास वर्तमान में केवल पांच सीटें हैं। बिहार विधानसभा चुनावों के परिणाम चाहे जिस तरह के निकलें, उनका देश की राजनीति और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काम करने की शैली पर दूरगामी प्रभाव पडऩे वाला है। 



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